Widows and Half Widows: Saga of extra-judicial arrests and killings in Kashmir

This book is about women who even after years of the disappearance of their husbands, sons and fathers are still on a daily search for their loved ones while trying to discover their own identity — are they widows or not widows. Apart from economic hardships, they have been alienated by family, society and government. Documenting their mental agony and trauma was never an easy task. This book compiles their tragedies in order to give a voice to the voiceless. Courts have failed them, successive governments have brushed aside their suffering, society has adopted an indifferent attitude and there are those who earn out of the indigence of these women.

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قيدى نمبر100: بھارتی زنداں کے شب و روز

بھارتی تعذیب خانوںمیں بیتے روح فرسا لمحات کی روداد قلمبند کرنا میرے لئے آسان نہ تھا۔ ہر لمحہ جب بھی میں قلم ہاتھ میں لے کر لکھنے بیٹھتی تو جیل کی تاریک زندگی کے اذیت ناک مناظر کے ہوش ربا نقوش ذہن کے پردے پر تازہ ہوکر مجھے بے چین و بے قرار کر دیتے اور میں سخت ذہنی تناو¿ میں مبتلا ہوجاتی۔ پھر بہت دیر تک اسی حالت میں پڑی رہتی۔ بڑی مشکل سے سنبھل کر پھر لکھنا شروع کر دیتی، مگر لہو لہان یادوں کا ہجوم نمودار ہوتے ہی پھر ذہنی تناو¿ مجھے گھیر لیتا۔ یہ سلسلہ کتاب کی تخلیق کے پورے عمل کے دوران جاری رہا۔
رہائی پانے کے بعد سے میں بے خوابی کی بیماری میں مبتلا ہوں۔ نیند کی دوا کھائے بغیر مجھے نیند نہیں آتی ہے۔ رات رات بھر جاگتی رہتی ہوں۔گھٹن بھرے خواب اب بھی مجھے ستاتے ہیں ۔ خواب میں میں جیل، جیل کی سلاخیں، جیل کا اسٹاف اور جیل کا پرتناو¿ ماحول دیکھتی ہوں۔ ابھی بھی جب شام کے چھ بجتے ہیں تو ایک خوف سا طاری ہو جاتا ہے۔ چھ بجے کے بعد گھر سے باہر نکلنا مجھے عجیب سا لگتا ہے، کیونکہ شام کے چھ بجے جیل کی گنتی بند ہو جاتی تھی اور اس عادت نے میرے ذہن کو مقفل کر دیا ہے۔ اب بظاہر میں آزاد دنیا میں ہوں مگر ابھی بھی بنا ہاتھ پکڑے میں سڑک پر اطمینان سے نہیں چل سکتی ہوں کیونکہ پانچ سال تک پولیس والے میرا ہاتھ پکڑے مجھے تہاڑ جیل سے عدالت اور عدالت سے تہاڑ تک لے جایا کرتے تھے ۔ اس عادت نے میرے ذہن میں وہ نقوش چھوڑے ہیں جن کا مٹنا مشکل ہے۔
— اس کتاب سے ایک اقتباس

انجم زمرد حبیب

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क़ैदी नम्बर 100: कारागार के दिन-रात

भारतीय यातना घरों में बीते अत्यन्त कष्टदायी क्षणों के बारे में लिखना मेरे लिए आसान नहीं था। हर पल जब भी क़लम हाथ में लेकर लिखने बैठती तो जेल के अंधकारमय जीवन के कष्टदायी दृश्यों के होश उड़ा देने वाले चिह्‌न मेरे दिमाग़ में ताज़ा हो कर मुझे फिर से बेचैन कर देते और मैं बहुत ज़्‍यादा मानसिक तनाव में आ जाती। बड़ी देर तक उसी हालत में पड़ी रहती। बहुत मुश्किल से फिर से लिखना शुरू करती, मगर रक्त रंजित यादों की भीड़ फिर से प्रकट हो जाती और मैं दोबारा मानसिक तनाव से घिर जाती। यह सिलसिला किताब लिखने के पूरे काम के दौरान चलता रहा।

रिहाई के बाद से अनिद्रा की बीमारी से ग्रस्त हूं। नींद की दवा खाए बिना सो नहीं सकती हूं। रात-रात भर जागती रहती हूं। घुटन भरे सपने मुझे अब भी आते हैं। सपने में जेल, जेल की सलाखें, जेल के स्‍टाफ़ और वहां का तनावपूर्ण माहौल देखती हूं। अभी भी जब शाम को छः बजता है तो एक भय सा छा जाता है। छः बजे के बाद घर से बाहर निकलना अजीब सा लगता है, क्योंकि जेल में छः बजे गिनती बंद हो जाती थी और उस आदत ने मेरे दिमाग़ को क़ैद कर दिया है। वैसे तो अब आज़ाद दुनिया में हूं, लेकिन अभी भी बिना हाथ पकड़े मैं सड़क पर आसानी से नहीं चल सकती हूं, क्योंकि पांच साल तक पुलिस वाले मेरा हाथ पकड़ कर तिहाड़ जेल से अदालत और अदालत से तिहाड़ जेल तक ले जाया करते थे। इस आदत ने मेरे दिमाग़ पर वे निशान छोड़े हैं जिनका मिटना मुश्किल है।

—इस किताब का एक अंश / अंजुम ज़मुर्रद हबीब

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नंगे पाँव बालक का उदय—एक आत्मकथा Nangey paanw balak ka uday: Ek atmakatha (Hindi)

लेखक देश के प्रसिद्ध वैज्ञानिक, शिक्षा विशेषज्ञ, शिक्षा प्रबंधक, पद्मश्री प्रोफ़ेसर जलीस अहमद ख़ाँ तरीन का जन्म 6 अप्रैल 1947 को मैसूर में हुआ। उन्होंने 1967 से 2007 तक का समय मैसूर विश्वविद्यालय में शिक्षण एवं शोधकार्य में व्यतीत किया। 2001 से 2004 के दौरान कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे, फिर 2007 से 2013 के दौरान पांडिचेरी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे और 2013 से 2015 के दौरान ही एस. अब्दुर्रहमान विश्वविद्यालय, चेन्नई के कुलपति रहे। वह मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी मैसूर के संस्थापक सचिव थे और फ़िल्हाल उसके अध्यक्ष हैं।

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