“गोलवलकर की ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ — शम्सुल इस्लाम द्वारा एक आलोचनात्मक समीक्षा
ख़ुशवंत सिंह लिखते हैं — “गोलवलकर पर सावरकर के विचारों की गहरी छाप थी, दोनों जातिवाद के समर्थक थे और हिटलर द्वारा लाखों-लाख यहूदियों के जनसंहार को जायज़ ठहराते थे। वे यहूदीवादी राज्य इज़राइल के इसलिए समर्थक थे कि इसने अपने पड़ोसी मुसलमान देशों से लगातार युद्ध छेड़ रखे थे। इस प्रकार इस्लाम से घृणा हिन्दुत्व का एक अभिन्न अंग बनकर उभरा। गोलवलकर की पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड की मुझे जानकारी नहीं थी। अब इसे सम्पूर्ण रूप से शम्सुल इस्लाम की पुस्तक में आलोचना के साथ छापा गया है। मैंने जो कुछ कहा है इससे उसकी पुष्टि होती है।”
इधर हम आरएसएस द्वारा अपने द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर को ‘फिर से जागे भारत के मसीहा’, ‘एक संत’, ‘एक नये विवेकानंद’, ‘भारत माता के सर्वश्रेष्ठ सपूत’ और ‘बीसवीं सदी के हिन्दू समाज को मिले सबसे बड़े उपहार’ के रूप में स्थापित करने के नियमित प्रयासों के गवाह रहे हैं। यह सब इसके बावजूद प्रचारित किया जाता रहा है कि वे अपनी पूरी ज़िन्दगी हिन्दुत्व की एक ऐसी परिभाषा के प्रति समर्पित रहे, जिसका अर्थ जातिवाद, नस्लवाद तथा अधिनायकवाद में अन्तर्निहित विश्वास था। वे भारत में एक ऐसे हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर थे, जहाँ मुसलमान और ईसाईयों जैसे अल्पसंख्यक केवल दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रह सकते थे और सिख, जैन और बौद्ध धर्मों को यहाँ केवल हिन्दू धर्म के अंग के तौर पर ही मान्यता दी जा सकती थी।
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